बारह प्रकार के होतें हैं श्राद्धः मिश्रपुरी

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हरिद्वार। श्रद्धया इदं श्राद्धम् अर्थात जो श्रद्र्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है। पितृांे के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए उसे श्राद्ध कहा गया है।
भारतीय प्राच विद्या सोसाइटी, कनखल के ज्योतिषाचार्य प्रतीक मिश्रपुरी के मुताबिक प्रायः लोग सोचते है की श्राद्ध सिर्फ इन्हीं 15 दिनों में होते हैं। जब घर में खुशी होती है तब भी श्राद्ध किया जाता है। 12 प्रकार के श्राद्ध का वर्णन शस्त्रों में किया गया है। इनमंे नित्य श्राद्ध पंचमहा यज्ञ के रूप में प्रतिदिन किया जाता है। दूसरा श्राद्ध नेमित्तिक श्राद्ध कहा जाता है। ये मृत्यु के उपरांत किया जाता है। तीसरा श्राद्ध काम्य श्राद्ध है जो किसी विशेष कामना कि पूर्ति के लिए किया जाता है। चतुर्थ श्राद्ध वृद्धि नाम से है। ये श्राद्ध पुत्र की उत्पति के बाद किया जाता है। इसी को नांदी श्राद्ध कहा जाता है। पंचम श्राद्ध सपिंडन कहा जाता है। जो कि मृत्यु के बाद व्यक्ति के पिंड को उसके पूर्वजों में मिलाया जाता है। गोष्ठी श्राद्ध सप्तम है। जो विद्वानों को सुखी समृद्ध बनाने के लिए किया जाता है। आठवां श्राद्ध शुद्धि कहा जाता है जो कि शरीर, मानसिक अशुद्धि को दूर करने के लिए किया जाता है। नवम श्राद्ध कर्मंग कहा जाता है जो सोम याग, पुंसवन, सीमांत तिनन्न संस्कारांे के मध्य किया जाता है। दैविक श्राद्ध दशम है। जो कि देवताओं की प्रसनता के लिए किया जाता है। यात्रा श्राद्ध एकादश है जो कि यात्रा काल में किया जाता है। अन्तिम बारहवें श्राद्ध को पुष्टि श्राद्ध कहा जाता है ,जो कि धन धान्य की वृद्धि के लिए किया जाता है।
श्री मिश्रपुरी के मुताबिक
हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था प्रेत है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
श्री मिश्रपुरी के मुताबिक पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है।

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