कुंभ ज्ञानार्जन नहीं संतों के लिए बना कमाई का साधन
जब करोड़ों की होती है कमाई तो सरकार क्यों देती है धन
हरिद्वार। कुंभ एक जमाने में ज्ञानोपार्जन का मुख्य जरिया हुआ करता था। कुंभ में देश भर के संत एकत्रित होकर समस्याओं और धर्म शास्त्रों पर चर्चा किया करते थे। उनसे निकलने वाला ज्ञान की समाज और संतों के लिए अमृत हुआ करता था, किन्तु आज न तो मंथन रहा और न ही समस्याओं पर चिंतन। आज कुंभ केवल चकाचौंध, संतों का दिखावा और भण्डारे तथा दक्षिणा तक सिमट कर रह गया है। कुंभ की आड़ में भक्तों व सरकार से दवाब बनाकर जितना लूटा जा सके उसे लुटने का कार्य भर रह गया है। विगत उज्जैन और प्रयागराज कुंभ से अखाड़ों और प्रमुख संतों को सरकार की ओर से करोड़ो रुपये देने की प्रथा का चलन होने से इनके और अधिक व्यारे-न्यारे होने लगे हैं। यही कारण है कि हरिद्वार कुंभ में भी अखाड़ों ने सरकार से पांच करोड़ देने की मांग रख दी है। इसके लिए अखाड़ों के संत सरकार पर पैसा शीघ्र देने का दवाब बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
आखिर सवाल उठता है कि सरकार से इतनी मोटी रकम लेकर संत क्या करेंगें। जब सरकार इनके लिए सभी सुविधाएं मुहैय्या करा रही है। कुंभ के दौरान इन्हें सस्ता राशन दिया जाता है। सुरक्षा के लिए बॉडीगार्ड भी सरकार उपलब्ध कराती है। अखाड़ों में कार्य भी सरकार के द्वारा कराए जाते हैं। कुंभ में होने वाले भण्डारों का आयोजन अखाड़ों से संबंधित मण्डलेश्वरों का होता है। जो मण्डलेश्वर कुंभ में अपनी छावनी नहीं लगाते हुए एक निश्चित रकम अखाड़े को देनी होती है। इसके साथ प्रत्येक स्नान पर्व पर पालकी में सवार होकर स्नान के लिए जाने वाले मण्डलेश्वरों व प्रमुख संतों को देवता के समक्ष पुकार करवानी होती है। जिसमें पुकार के नाम पर करोड़ों की राशि एकत्र होती है। तो कुंभ में अखाड़ों का खर्च क्या होता है। पालकी में निकले वाले मण्डलेश्वरों को अपनी पालकी का खर्च स्वंय वहन करना होता है। जब अखाड़ों का कुछ खर्च ही नहीं होता तो सरकार इनकों करोड़ों रुपया क्यों देती है। कुंभ में सबसे अधिक मजे में अखाड़े के संत ही होते हैं। कारण की मण्डलेश्वरों को अपनी छावनी लगाने, भोजन इत्यादि की व्यवस्था तथा समष्टि व व्यष्टि भण्डारों पर लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं। जबकि अखाड़े के संत भण्डारों में मोटी रकम पाते हैं। यहां भी जो जितने बड़े पद पर उसे उतनी ही मोटी दक्षिणा मिलती है। वहीं मण्डलेश्वर बनाने में भी लाखों रुपये चढ़ावे के नाम पर ये अपने जेब में भर लेते हैं। वास्तव में देखा जाए तो अखाड़ों के संतों के लिए कुंभ अध्यात्मिक चिंतन का पर्व न होकर धन कमाने का बड़ा जरिया बन चुका है। ऐसे में सरकार को अखाड़ों को धन देने की जरूरत क्या। देखा जाए तो कुंभ के नाम पर अपने आराम की जिंदगी का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य कुछ संतों द्वारा किया जाता है। और जो वास्तव में सत हैं तथा जिनके पास धन का अभाव है और जो भगवत चिंतन में रहने वाले हैं उनकी ओर न तो कोई ध्यान दिया जाता है और न ही उनका कहीं सम्मान होता है।