कुंभ कथा……..संतों की अजब-गजब लीला

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पूर्व में साधना के लिए साधन का करते थे त्याग, आज साधना के लिए मांग रहे साधन

हरिद्वार। एक समय था जब व्यक्ति साधना के लिए साधन का त्याग कर दिया करते थे। किन्तु वर्तमान में साधना के लिए साधनों को जुटाने की होड़ लगी हुई है। स्थिति यह है कि जिसके पास जितने अधिक साधन समाज में उसको उतना ही बड़ा साधक माना जाता है। वन-कंदराओं में रहने वालों और फक्कड़ का जीवन जीने वालों को कोई साधक मानने को ही तैयार नहीं है। साधना के लिए साधन का त्याग करने वालों में गौतम बुद्ध का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। जिन्होंने राजपाठ छोड़ परमात्म प्राप्ति के लिए अपने वस्त्रों तक का त्याग कर दिया और अपनी साधना के बल पर गौतम से भगवान बुद्ध बन गए।


गौतम बुद्ध तो मात्र एक उदाहरण है। अनगिनत ऐसे नाम हैं जिन्होंने साधना के लिए साधनों को त्याग किया और साधना के उच्च पद को प्राप्त किया। वर्तमान में उच्चकोटि का स्वंय को साधक कहने वालों की लम्बी फेहरिस्त है। आगामी वर्ष 2021 में हरिद्वार में कुंभ पर्व आने वाला है। इसमें भी साधन सम्पन्न सैंकड़ों साधकों का यहां आगमन होगा। और जो साधनों को त्याग कर साधना के लिए यहां आएंगे उनको कोई पूछने वाला तक नहीं होगा और न ही वह स्वंय को दिखाने की कोशिश करेंगे।
कुंभ मेले की तैयारियां आरम्भ हो चुकी हैं। आश्रम-अखाड़े भी कुंभ की तैयारियों में जुट गए हैं। कुछ संत कुभ में साधनों को जुटाने के लिए अखाड़ों के लिए प्रदेश सरकार से पांच करोड़ की मांग कर रहे हैं। जिससे की साधना के लिए साधनों को जुटाया जा सके। आखिर क्यों आज इन्हें साधना के लिए साधनों की आवश्यकता आन पड़ी। गौतम बुद्ध तो साधना के लिए साधनों का त्याग करने वालों मंे अग्रणी हैं ही। इसके अतिरिक्त यदि बात हरिद्वार की करें तो यहां भी अनेक संत ऐसे हुए हैं जिनके पास साधन होते हुए भी उन्होंने उनको न तो स्वीकारा और न ही उन्होंने साधना का त्याग किया। हरिद्वार में श्रवण नाथ महाराज, टाट वाले बाबा, मौनी बाबा, ब्रह्मचारी महाराज जिन्होंने अपना जीवन कनखल शमशान में ही बिता दिया। इन्होंने साधन होने के बाद भी साधनों को न तो अंगीकार किया और न ही अपनी साधना के मार्ग को छोड़ा। आज साधना के लिए साधनों की मांग की जा रही है। साधनों को उपलब्ध न कराने पर कुंभ स्नान के वहिष्कार की बात की जाती है। देखा जाए तो कुंभ किसी एक वर्ग विशेष का पर्व नहीं है। यह समभाव और सभी वर्ग के लोगों का पर्व है। ऐसे में यदि कोई वर्ग कुंभ वहिष्कार की बात करता है तो उससे सरकार को चिंतित नहीं होना चाहिए। साधनों का त्याग कर ही साधना की जा सकती है। और जब साधना के मार्ग पर व्यक्ति चल पड़ता है तो उसे साधनों की जरूरत ही महसूस नहीं होती। आज जो कुछ भी साधना का ढि़ढोरा पीटा जाता है वह सब दिखावा मात्र है। कुंभ की तैयारियों से भी अखाड़े के कथित साधकों, महापुरूषों का कोई लेना-देना नहीं है। इनका मकसद तो कुंभ के दौरान अधिक से अधिक मण्डलेश्वरों की जमात को बढ़ाना और उनसे मोटी रकम वसूलना, भण्डारे में मोटी दक्षिणा लेना, मण्डलेश्वरों द्वारा कुंभ में दी जाने वाली समष्टि के नाम पर खर्च होने वाली राशि से दोगुना अधिक लेकर अपने व्यारे-न्यारे करना, सरकार पर दबाव बनाकर धन ऐंठना, पुकार के नाम पर एकत्रित होने वाले धन की बंटरबांट करना ही इनकी साधना बनकर रह गया है। साधक होने का ढ़ोग कर लोगों से धन उगाही करना ही इनकी साधना है।

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