हरिद्वार। वर्ष 2021 में आयोजित होने वाले कुंभ पर अभी कोरोना का संकट बरकरार है। यदि कोरोना का संक्रमण इसी प्रकार से बना रहता है और इसकी कोई दवा बाजार में नहीं आ जाती तो कुंभ को भव्य रूप देना मुश्किल होगा। वहीं कुंभ तक निर्माण कार्यों के पूरा होने पर भी संशय है। उधर हरिद्वार का व्यापारी वर्ग और संत समाज कोरोना की समाप्ति और कुंभ के भव्य आयोजन की कामना कर रहा है।
करीब छह माह से हरिद्वार का व्यवसाय कोरोना के कारण चैपट हो गया है। व्यापारी वर्ग परेशान है। ऐसे में उसे उम्मीद है की यदि कुंभ का भव्य आयोजन सही प्रकार से होता है तो उसकी परेशानी काफी हद तक कम हो जाएगी। वहीं सत समाज खासकर अखाड़ों के संतों को उम्मीद है की यदि कुंभ का आयोजन भव्य होता है तो उसकी दुकान में भी चल निकलेगी। वैसे अपना काम चलाने के लिए अखाड़ों की मांग पर प्रदेश सरकार ने एक-एक करोड़ रुपये सभी अखाड़ों को देने की बात कह दी है।
इस बात को लेकर कुछ संतों में नाराजगी भी है। नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ संत ने कहाकि अखाड़ों के पास पहले से ही अकूत सम्पत्ति है। बावजूद इसके सरकार ने उन्हें एक-एक करोड़ देने का वादा किया है। ऐसे में अन्य संतों का क्या। उनका कहना था कि क्या अन्य संत संत नहीं हैं। केवल अखाड़ों के संत ही संत हैं। उनका कहना था कि कुंभ के नाम पर कुछ संत करोड़ों रुपये की कमायी करते हैं। सरकार से मिलने वाली धनराशि के अतिरिक्त जो राशन आदि की सुविधा मिलती है उसकी भी बंदरबांट कर दी जाती है। बताया की मण्डलेश्वरों के नाम पर राशन आदि सरकारी मूल्य पर मिलता है उसको भी अखाड़े पचा जाते हैं। बताया कि उज्जैन, प्रयागराज में कुंभ के दौरान संतों को मिलने वाला सरकारी राशन भी साधारण संतों को नहीं मिला। वहां भी कुछ कथित संत उस राशन का पचा गये। बताया कि हालात इतने बदतर हैं कि कंुभ आयोजन की समाप्ति के बाद ट्रक भरकर सरकारी राशन कथित संतों द्वारा बेजा जाता है।
उनका कहना था कि यदि सरकार संतों की मदद के लिए नगद धनराशि देती है तो उसे सभी संतों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। अखाड़ों को एक-एक करोड़ किन्तु शेष को आईना क्यों दिखाया जा रहा है। जबकि अखाड़ों के पास तो पहले से ही अकूत सम्पत्ति है। अपनी जमीनों को ये बेचकर मोटी कमायी कर रह हैं। कुंभ में जहां संतों के डेरे लगते थे वहां इनके द्वारा इमारतें बनाकर मोटे दामों पर बेची जा रही हैं और सरकार से ये मदद की गुहार लगाते हैं। उनका कहना था कि सरकार को सभी संतों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। कंुंभ केवल कुछ लोगों या संतों का नहीं है। कंुंभ का पर्व विराट अध्यात्मिक पर्व है। यह सभी का है। किसी वर्ग विशेष का नहीं। ऐसे में सरकार को किसी भी प्रकार के दबाव में आए बिना कार्य करना चाहिए। उनका कहना था कि अखाड़ों से अधिक खर्च मण्डलेश्वरों का होता है। जिन्हें कुंभ में छावनी लगाने के बाद अखाड़े पहुंचकर देवता के समक्ष पुकार करानी पड़ती है। पुकार में धनराशि का भी पद की गरिमा के अनुरूप ध्यान रखा जाता है। वहीं प्रत्येक शाही स्नान के बाद पुकार करायी जाती है। इसके अतिरिक्त समष्टि भण्डारे में भी 10 से 12 लाख रुपये कम से कम खर्च नहीं आता है। इसके अतिरिक्त पंडाल लगाने का खर्च अलग होता है। जबकि अखाड़ों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। जो भण्डारे आदि अखाड़ों में होते हैं उनका खर्च मण्डलेश्वर देते हैं। ऐसे में अखाड़ों के पास केवल धन की आगत ही रहती है, खर्च कुछ नहीं। फिर अखाड़ों को धन देने की क्या जरूरत। उनका कहना था कि सरकार को इस पर विचार करने की जरूरत है। यदि सरकार अखाड़ों धन देती है तो उसे अन्य संतों के साथ भी समान व्यवहार करना चाहिए।