न संत कुंभ का वहिष्कार कर सकते हैं और न ही सरकार संतों को नाराज कर सकती है
हरिद्वार। रविवार देर शाम को हरिद्वार में होने वाले कुंभ मेले को लेकर संतों के साथ सीएम ने मंत्रियों व मेला प्रशासन के अधिकारियों के संग बैठक की। बैठक में मेला प्रशासन द्वारा पूर्व में घोषित की गई तिथियों के बाद विवाद होने पर पुनः शाही स्नान की तिथियां घोषित की गई। बैठक में जमकर संतों ने हंगामा किया। कुंभ में पहला शाही स्नान 11 मार्च को होगा। दूसरा 12 अप्रैल, तीसरा 14 अप्रैल और चौथा 27 अप्रैल को होगा।
सीसीआर सभागार में आयोजित बैठक में सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत, अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरी, महामंत्री हरि गिरि सहित तेरह अखाड़ों के प्रतिनिधि और कुंभ मेले के तमाम अधिकारी मौजूद रहे। बैठक से संतों ने काफी हंगामा किया। वहीं बैरागी कैंप के अतिक्रमण को लेकर भी संत समाज दो फाड़ नजर आया। बैठक में संतों ने कुंभ के कार्यों में लेटलतीफी पर नाराजगी जतायी। जो वाजिव कही जा सकती है। सीएम द्वारा कुंभ कार्यों को समय रहते पूरा कर लिए जाने के आश्वासन के बाद संत शांत हो गए।
इसके साथ ही संतों ने अखाड़ों में होने वाले कार्य शीघ्र शुरू करवान और प्रयागराज कुंभ की तर्ज पर हरिद्वार कुंभ सम्पन्न कराने की मांग की। साथ ही संतों ने अखाड़ों को जमीन देने की भी मांग की।
प्रयागराज कुंभ की तर्ज पर हरिद्वार मेला सम्पन्न कराने के पीछे सतों की धारण थी की सरकार द्वारा पांच करोड़ रुपये अखाड़ों को दिए जाएं। सवाल उठता है कि आखिर संत समाज बैठक से पूर्व क्यों बिफरा और फिर एकाएक मान कैसे गया। जब संत समाज मान चुका है कि कुंभ तक कार्य पूरे नहीं किए जा सकते तो उसने कार्य पूरा करने की ठोस योजना के संबंध में सरकार से जानकारी क्यों नहीं ली। सूत्र बताते हैं कि संतों का बैठक से पूर्व बिफरना केवल और केवल सरकार पर दवाब बनाने की रणनीति का हिस्सा था। यदि संत हंगामा न करते तो सरकार को अपने दवाब में लेना मुश्किल था। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकार संतों की मान मनव्वल नहीं करती और कुंभ की आड़ में मिलने वाली धनराशि खटाई में पड़ सकती थी।
सवाल उठता है कि आखिर संतों को धन की क्या आवश्यकता। जब सरकार अखाड़ों में कार्य करवाने की हामी भर चुकी है, तो धन की फिर दरकार क्या। रहा सवाल भूमि आबंटन को तो सरकार को संतों से पूछना चाहिए था कि उनके पास जो जमीन वर्षों से छावनी और संतों के रहने के लिए चली आ रही थी उस पर उन्होंने बड़ी-बड़ी इमारतों को निर्माण क्यों किया। क्यों उनको बेचा और किराए पर दिया गया। इसके साथ ही करोड़ों रुपये की आमदनी की। देखा जाए तो दोनों एक-दूसरे पर दवाब की रणनीति के तहत कार्य कर रहे हैं। संत जानते हैं कि सरकार पर दवाब बनाकर उससे मोटी रकम ली जा सकती है। वहीं सरकार को डर है कि यदि संत नाराज हो गए तो फिर चुनाव में पार्टी का क्या होगा। वैसे भी भाजपा के हाथ से एक-एक कर राज्य निकलते जा रहे हैं। ऐसे में प्रदेश सरकार संतों की बात को नकार कर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। संत भी जानते हैं कि सरकार पर दवाब कैसे बनाया जाए। संतों के पास एक ही हथियार है कि यदि सरकार ने संतों की न मानी तो वह कुंभ स्नान का वहिष्कार कर देंगे। सरकार मानती है कि कुंभ मेला केवल संतों के जमावड़े का ही खेल है। जबकि कुंभ आमजन मानस का पर्व है। वैसे भी संत समाज खासकर अखाड़ा परिषद कुंभ का वहिष्कार चाहते हुए भी नहीं कर सकते। कारण की कुंभ पर्व को दूधारू गाय की तरह है। इसमंे मण्डलेश्वर बनने से लेकर अखाड़े के पदाधिकारी बनने और देवता की पुकार के नाम पर आने वाले करोड़ों रुपये को संत कभी नहीं अपने हाथों से जाने देना चाहेंगे। ऐसे में संतों की धमकी केवल दवाब का हिस्सा थी। कुल मिलाकर संत समाज खासकर अखाड़ा परिषद सरकार की कमजोरी जान चुकी है और सरकार संतों को नाराज कर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती है। यही कारण है कि संत थोड़ी से मान मनव्वल के बाद मान गए। यह बात सरकार भी जानती है कि गंाधी छाप कागज में बड़ा दम है। संतों का रूठना और हंगामा करना रणनीति का एक हिस्सा था। और सरकार को इनके आगे घुटने टेकने ही थे। मगर जो कुछ हुआ वह आम जनता को केवल बेवकूफ बनाने और मीडिया की सुर्खियंा बनने के अतिरक्त कुछ नहीं था। बैठक में जो हुआ वह सर्वविदित था। जो हुआ वह तो होना ही था…….।