राजराजेश्वराश्रम शंकराचार्य हैं या महामण्डलेश्वर अखाड़ा भी कंफ्यूज
हरिद्वार। श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी में आचार्य महामण्डलेश्वर पद पर आज स्वामी कैलाशांनाद गिरि महाराज का पट्टाभिषेक हो गया। पट्टाभिषेक समारोह शुरू से ही विवादों में रहा। जहां निरंजनी के आचार्य स्वामी प्रज्ञानानंद महाराज ने स्वामी कैलाशांनद गिरि के पट्टाभिषेक को फर्जी करार दिया। वहींे अखाड़े ने स्वामी प्रज्ञानानंद गिरि को आचार्य पद से निष्कासन का फरमान जारी कर अपने इरादे व्यक्त किए। बावजूद इसके अखाड़े की माया जग जाहिर हो ही गयी।
बता दें कि स्वमी कैलाशानंद गिरि महाराज का आचार्य पद पर पट्टाभिषेक नियत तिथि पर हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए स्वामी कैलाशांनद गिरि को संन्यास दीक्षा देने वाली जगद्गुरु शंकराचार्य एंव महामण्डलेश्वर स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज को चुना गया। सूत्र बताते हैं िकि इसी बीच स्वमी राजराजेश्वराश्रम महाराज अखाड़े की कारगुजारियों से नाराज हो गए और उन्होंने कार्यक्रम में न जाने तक की धमकी दे डाली। जिनकी मान मनव्वल के लिए स्वंय कैलाशांनद गिरि महाराज दो दिन पूर्व उनके आश्रम पहुंचे। स्वामी राराजेश्वराश्रम महाराज की नाराजगी का कारण था पट्टाभिषेक के निमंत्रण पत्र पद उनके नाम को लेकर। अखाड़े ने जो निमंत्रण पत्र छपवाए उसमें राजराजेश्वराश्रम हो श्रभ् 1008 महामण्डलेश्वर स्वामी राराजेश्वराश्रम गिरि लिख गया। जिससे वे नाराज हो गए। जबकि अखाड़े के श्री मंहत व अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरि महाराज स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज को अखाड़े का मण्डलेश्वर ही बताते आए हैं। उनका कहना था कि राजराजेश्वराश्रम महाराज शंकराचार्य नहीं हैं, वे अखाड़े के वरिष्ठ मण्डलेश्वर है। इस निमंत्रण कार्ड के छपने से राजराजेश्वराश्रम महाराज के नाराज हो जाने पर अखाड़े द्वारा दोबारा निमंत्रण पत्र छपवाए गए। जिसके अंकित किया गया की पट्टाभिषेक कार्यक्रम की अध्यक्षता जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज करेंगे। अब अखाड़ा यह तय नहीं कर पा रहा है कि स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज शंकराचार्य हैं या फिर अखाड़े के मण्डलेश्वर। यदि राजराजेश्वराश्रम महाराज शंकराचार्य हैं तो वे महामण्डलेश्वर कैसे हो सकते हैं। यदि महामण्डलेश्वर हैं तो वे शंकराचार्य कैसे हुए। वहीं हंस परम्परा का संन्यायी परमहंस नहीं हो सकता। यदि वह परमहंस है तो उसका हंस होना असंभव है। अब अखाड़ा ही यह तय नहीं कर पा रहा है कि स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज हंस है। या फिर परमहंस। यदि परमहंस हैं तो शंकराचार्य कैसे हुए। यदि शंकराचार्य हैं तो फिर उन्होंने परमहंस की दीक्षा स्वामी कैलाशानंद गिरि को कैसे दे दी और आश्रम नामा होकर कैसे कैलाशांन को गिरि नामा दिया। देखा जाए तो सनातन धर्म का धर्म ध्वजावाहक होने का दंभ भरने वाला संन्यासर समाज ही संत और सनातन परपम्परा को पलीता लगाने का कार्य कर रहा है। ऐसे में धर्माचार्यों की चुप्पी सनातन धर्म को गर्त में ले जाने का कार्य कर रही है।