त्यागी संत, जहां लगती है पदों की बोली

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आम आदमी से कोड़ी तक का हिसाब भगवाधारियों को करोड़ों खर्च करने की छूट?
हरिद्वार।
कलयुग में धर्म की बजाय अर्थ की प्रधानता है। इससे सब कुछ छोड़कर संत बनने वाले भी नहीं बचे हैं। कंदराओं और एकांत में तप करने वाले आज आलीशान घरों और लग्जरी गाड़ियों में घूमते हैं। बावजूद इसके यह स्वंय को त्यागी कहने से पीछे नहीं हटते।
त्यागी कहलाने वाले संतों में अर्थ इतना प्रबल हो गया है। की बिना इसके इनका एक कदम भी नहीं उठता। हर कार्य में अर्थ की खोज इनकी नियती बन चुकी है। वर्तमान में कुंभ का वर्ष आरम्भ हो चुका है। अधिकारिक रूप से कुंभ की घोषणा होना अभी बाकी है। कुंभ को लेकर संतों ने बड़े सपने संजोए थे। जहां कोरोना ने समूची दुनिया को प्रभावित किया वहीं तपस्वी होने का दंभर भरने वाले संत भी कोरोना की मार से नहीं बच सके। कुंभ के दौरान अखाड़ों में मण्डलेश्वर बनने की होड़ सी लगी रहती है। प्रत्योक कुंभ में 10-20 मण्डलेश्वर अखाड़ों में बनते हैं। निसे मण्डलेश्वर बनाने के लिए लाखों रुपये चढ़ावे के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से लिए जाते हैं। पूर्व में विद्वान संत को ही मण्डलेश्वर बनाने की परम्परा थी, किन्तु अब धन बल के आगे यह समाप्ता हो चुकी है। स्थिति यह है कि धन बल के आगे विद्वान के समक्ष चार पैर वाला भी मण्डलेश्वर बन सकता है। वर्तमान में भी ऐसे कई मण्डलेश्वर हैं जो टूटी-फूटी हिन्दी में बस अपना नाम लिखना जानते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह समाज को क्या ज्ञान देंगे। कई ऐसे भी मण्डलेश्वर हैं जिनके पास न तो अपना ठिकाना तक है और न ही आसन तक उठाने वाला व्यक्ति। बावजूद इसके उन्हें मण्डलेश्वर जैसे पद पर दिया गया। ऐसा धन बल के कारण हुआ। आलम यह है कि गरीब से गरीब साधु को भी मण्डलेश्वर बनने के लिए 25 से 30 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं। वहीं जिसके पास धन है उसका खर्च 50 लाख से कम नहीं बैठता। बात अगर आचार्य मण्डलेश्र की करें तो इसका खर्च कल्पना से भी परे है। आचार्य मण्डलेश्वर बनने के लिए 8 से 10 करोड़ रुपये की आवश्यकता पड़ती है। इतना ही नहीें प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल में पड़ने वाले कुंभ व अर्द्धकुंभ पर करीे ढ़ाई करोड़ रुपये खर्च करना पड़ता है। ऐसे में मण्डलेश्वर और आचार्य मण्डलेश्वर बनने वाले संत आने वाले तीन सालों में होने वाले खर्च को इकट्ठा करने में ही लगे रहते हैं। तो जरा सोचिए जो संत धन के पीछे दौड़ता रहेगा वह क्या खाक भजन, साधना कर पाएगा।
सबसे हास्यास्प्रद बात यह कि सरकारें आम आदमी से एक-एक कोड़ी तक का हिसाब लेती हैं। यदि किसी व्यक्ति के पास एक-दो लाख रुपये निकल आए तो उसे कितने कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं यह सर्वविदित है, किन्तु स्वयं की विलासिता और कुंभ व अर्द्धकुंभ जैसे आयोजनों पर करोड़ो खर्च करने वालों से सरकार भी कोई हिसाब नहीं लेती। जिस कारण इनमें धन की लोलुपता बढ़ती जा रही है। कंुभ व अर्द्धकंुभ में शासन व प्रशासन इनकी चरण वंदना में लगा रहता है। आम आदमी का उसे ख्याल नहीं रहता। शासन-प्रशासन कुंभ व अर्द्धकुंभ से महा आयोजनों को सर्व समाज का न मानकर केवल संतों का ही मानकर चलता है। जबकि आम श्रद्धालु श्रद्धापूर्वक गंगा स्नान के लिए आता है और मठाधीश धन एकत्रित करने के उद्देश्य से। जबकि सच्चे और आम साधु को कोई पूछने वाला नहीं है।

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