अखाड़ों की दादागिरी से त्रस्त होकर जन्मी मण्डलेश्वर समिति

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हरिद्वार। पूर्व में सभी अखाड़ों को आचार्य मण्डलेश्वर एक ही हुआ करता था। किन्तु की व्यवहारिक दिक्कतों के कारण सभी अखाड़ों में आचार्य बनाने की परम्परा का सूत्रपात हुआ। मण्डलेश्वर मण्डलीश्वर का अपभ्रंश है। पूर्व में मण्डलीश्वर विद्वान संत हुआ करते थे। जो संतों के समूह को नेतृत्व करते हुए स्थान-स्थान घूमकर धर्म प्रचार और लोगों का मार्गदर्शन किया करते थे। समय के साथ अब यह समाप्त हो चुका है। अब मण्डलेश्वर बनने के लिए विद्वता के स्थान पर धन बल का बोलबाला हो गया है। जहां मण्डलेश्वर बनने के लिए 20 से 50 लाख खर्च करने पड़ते हैं वहीं आचार्य पद के लिए 8 से 10 करोड़ रुपये का व्यय आता है। बावजूद इसके आचार्य बनने वाले संत को अखाड़ों के दवाब में रहने को मजबूर होना पड़ता है। इन्हीं सब कारणों के चलते मण्डलेश्वर परिषद का जन्म हुआ।
अखाड़ों के व्यवहार के कारण वर्ष 1974 में मण्डलेश्वर परिषदइ का गठन हुआ। जिसके अध्यक्ष त्यागमूर्ति स्वामी गणेशानंद पुरी महाराज बने। मण्डलेश्वर परिषद नाम पर कुछ संगठनों ने एतराज जताया। जिसके बाद उसका नाम बदलकर मण्डनलेश्वर समिति कर दिया गया। वर्तमान में मण्डलेश्वर समिति अपना कार्य कर रही है। 1974 में मण्डलेश्वर परिषद के गठन के बाद 1998 से यह सक्रिय रूप से कार्य करने लगी। पूर्व में मण्डलेश्वर परिषद के संतों और अखाड़े के संतों के बीच व्यवहार था, किन्तु वर्तमान में अब व्यवहार बंद हो चुका है। न तो अखाड़ों में मण्डलेश्वर समिति से संबंधित कोई संत जाता है और न ही समिति के संतों को निमंत्रण दिया जाता है। समिति के संत शाही स्नान में भी शामिल नहीं होते। समिति के एक संत ने बताया कि अखाड़े में पठित वर्ग के संत नगण्य की संख्या में हैं। इनका व्यवहार और आचरण भी संत मर्यादा के अनुकुल नहीं होता है। साथ ही मण्डलेश्वरों को अखाड़े के लोग दवाब में रखने की कोशिश करते हैं। कुंभ आदि पर्वों पर मण्डलेश्वरों के द्वारा धन खर्च करने के बाद भी उनको अपमान सहना पड़ता था। इसी कारण से मण्डलेश्वर समिति का गठन किया गया। उन्होंने बताया कि समिति का कार्य आदी शंकर के ग्रंथों के साथ सनातन धर्म का प्रचार करना ही मुख्य उद्देश्य है। समिति में सभी संत प्रकाण्ड विद्वान हैं। बताया कि वर्तमान में समिति के संतों का अखाड़ों से किसी प्रकार को कोई वास्ता नहीं है। उन्होंने बताया कि यदि अखाड़ों को मण्डलेश्वरों के प्रति व्यवहार सही रहता तो मण्डलेश्वर समिति के गठन की आवश्यकता नहीं थी। अखाड़ों की कार्यशैली और व्यवहार के कारण ही मण्डलेश्वर समिति का प्रबुद्ध संतों को गठन करना पड़ा।

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