हरिद्वार के संतों की अजब-गजब लीला

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त्यागी मांग रहे और अपनी बेच रहे
हरिद्वार।
मानस में गोस्वामी तुलसी दास महाराज ने लिखा है कि पतसी धनवंत, दरिद्र गृही, कलि कौतकु तात न जात कही। ऐसा ही कुछ तीर्थनगरी हरिद्वार में भी देखने को लि रहा है। जहां सत महात्मा करोड़ों के आलीशान महल में रह रहे हैं और लाखों की लग्जरी गाड़ियों में घुम रहे है। जबकि आम जनता का बुरा हाल है।
शुक्रवार को हुई अखाड़ा परिषद की बैठक में पुनः सर्व सम्मति से चुने गए परिषद अध्यक्ष श्रीमहंत नरेन्द्र गिरि व महामंत्री हरिगिरि ने कुंभ कार्याेें को शीघ्र पूरा किए जाने की बता कही। जिसका सभी अखाड़ों के प्रतिनिधियों ने एक स्वर में समर्थन किया। इसी के साथ उन्होंने कुंभ में लगने वाली संतों की छावनियों के लिए भू आबंटन प्रक्रिया शीघ्र आरम्भ किए जाने के साथ अधिक से अधिक भूमि आबंटन की सरकार से मांग की। इसी के साथ संतों को अन्य सुविधांए भी मुहैय्या कराने की मांग की गई।
सवाल उठता है कि कुंभनगरी हरिद्वार छोटी सी नगरी है। इस कारण मेले के लिए संतों को अधिक से अधिक भूमि देना भी शासन-प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है। प्रत्येक अखाड़ा अपने संतों के लिए अधिक से अधिक भूमि दिए जाने की मांग कर रहा है।
बता दें कि स्वंय को सबसे बड़ा त्यागी कहने वाले संतों के पास बड़ी मात्रा में भूमि है और भूमि पर संतों का लम्बे अर्से से अधिकार है। स्वंय को त्यागी कहने वाले संतों पर भी आधुनिकता ने अपना रंग चढ़ा दिया। जिस कारण संत संतई छोड़ व्यवसायी बन गए। और अखाड़ों की भूमि पर आलिशान अपार्टमेंट बना डाले। जिससे संतों ने करोड़ों के व्यारे-न्यारे किए। अखाड़ों की जो भूमि संतों के निवास, भजन-पूजन के लिए राजा-महाराजाओं व सेठों ने दान दी, उस भूमि पर अपार्टमेंटों का निर्माण कर त्यागी संतों ने करोड़ों कमाए। अखाड़ों की जिन जमीनों पर छावनी लगा करती थी, जहां जमात आकर रूका करती थी वहां अब बहुमंजिला इमारतों का निर्माण संतों द्वारा किया जा चुका है।
सवाल उठता है कि त्यागी कहलाने वाले संत अब सरकार से जमीन की मांग कर रहे हैं और अपनी जमीनों को बेचने का काम कर रहे हैं। कहा जा सकता है कि है न संतों की अजब लीला। अखाड़ों की जिस भूमि पर कभी शंख् ध्वनि, वेद की ऋचाओं के स्वर गुंजायमान हुआ करते थे वहीं अब बच्चों की किलकारी की आवाजें सुनाई देती हैं।
वर्तमान समय में अखाड़ा परिषद संतों की केवल संस्था न रहकर राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गयी है। कुंभ से पूर्व अखाड़ा परिषद की बैठकें और सरकार से सुविधाओं की मांग के साथ समय-समय पर सरकार की धीमे से आलोचना के स्वर छोड़ देना केवल और केवल लाभ पाने के लिए सरकार पर दवाब बनाने की रणनीति का एक हिस्सा है। सरकार को चाहिए की कुंभ कार्यों में संतों के दवाब में न आकर इनके द्वारा दान में प्राप्त बेची गयी भूमि की जांच करवाए और जिस दान की भूमि से करोड़ों के व्यारे-न्यारे किए हैं उनका समाजहित में हिसाब ले और सम्पत्ति का अधिग्रहण करे।

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