हंस परम्परा के संन्यासी से संन्यास दिलवाकर परमहंस बनाया
हरिद्वार। साधु-संतों को धर्मध्वजा का वाहक कहा गया है। धर्म की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर संतों ने शास्त्र के साथ शस्त्र भी उठाए हैं। कई लड़ाईयां संतों के द्वारा लड़ी गयी हैं। किन्तु वर्तमान में समय में बदलाव के साथ ही धर्म के रक्षक धर्म का ह्ास करने में भी पीछे नहीं हैं।
इसकी बानगी गुरुवार को हरिद्वार में देखने को मिली। जब एक हंस परम्परा के संत ने परमहंस परम्परा में प्रवेश करने वाले संत को अखाड़ों के संतों की मौजूदगी में संन्यास दीक्षा दी।
बता दें कि श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी में आचार्य महामण्डलेश्वर का पद काफी समय से रिक्त चला आ रहा था। कुंभ के दौरान इस पद को भरा जाना आवश्यक हो गया था। ऐसे में अखाड़ों के संतों ने अग्नि अखाड़े के महामण्डलेश्वर स्वामी कैलाशानंद ब्रह्मचारी महाराज को आचार्य पद पर आसीन करने के लिए उनको संन्यास दीक्षा दिलवायी। संन्यास दीक्षा के बाद स्वामी कैलाशानंद आचार्य पद पर आगामी 14 जनवरी को आसीन को जाएंगे। स्वामी कैलाशानंद की संन्यास दीक्षा का कार्य कनखल स्थित श्रीजगद्गुरु आश्रम में सम्पन्न हुआ। गुरुवार संाय उनके पंच केश उतारे गए और शुक्रवार की अल सुबह करीब 4 बजे उनकी चोटी काटी गयी। संन्यास दीक्षा जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज ने दी। संन्याय लेने के बाद स्वामी कैलाशानंद ब्रह्मचारी ब्रह्मचारी, से स्वामी कैलाशानदं गिरि हो गए। बता दें कि अभी तक की दशनाम संन्यास परम्परा में संन्यास देने वाले गुरु का नाम ही शिष्य को प्राप्त होता है। संन्यास दीक्षा आश्रम नामा संन्यासी ने दी और दीक्षा लेने वाला गिरि नामा में प्रवर्त हो गया। वहीं ऐसा विधान है कि हंस परम्परा का संन्यासी परमहंस संन्यासी को दीक्षा नहीं दे सकता। जबकि यहां स्वंय को धर्मध्वजा वाहक कहने वाले अखाड़े के संतों की मौजूदगी में यह सब हुआ। वहीं अखाड़े के संतों के मुताबिक स्वामी राजराजेश्वराश्रम महाराज ने जो संयास दिया है वह शंकराचार्य नहीं है। वह निरंजनी अखाड़े के महामण्डलेश्वर हैं। यदि अखाड़े की बात को सही मान लिया जाए तो परमहंस सन्यासी दण्ड धारण नहीं करता। दण्ड धारण का अधिकार हंस परम्परा के संन्यासी को होता है। वहीं स्वामी राजराजेश्वराश्रम अपने नाम के आगे दशनामी परम्परा के आश्रम नामा का प्रयोग करते हैं। वहीं अखाड़े के संत का कहना था कि स्वामी कैलाशानंद को संन्यास ब्रह्मलीन स्वामी प्रकाशानंद के नाम से दिया गया है। यदि ऐसा है तो चोटी काटने का अधिकार फिर भी हंस परम्परा के संन्यासी को नहीं हैं। जबकि स्वामी प्रकाशानंद महाराज की परम्परा सूरतगिरि बंगले की है। जहां स्वामी गिरिशानंद महाराज ने स्वामी चेतनानंद गिरि महाराज को अपना शिष्य बनाया और स्वामी चेतनानंद महाराज की परम्परा में स्वामी ज्ञानानंद गिरि स्वामी प्रकाशानंद गिरि और उनके कई गुरु भाई रहे। जानकारों का मानना है कि हंस परम्परा के संत से परमहंस को सन्यास दिलवाना विधान के विपरित हैं।