संतों की राजनीति या राजनीति के संत

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दिगम्बर होते हुए भी धन के पीछे दौड़ रहे भगवाधारी
हरिद्वार।
शास्त्रों में वर्णित है कि जहां समानता है वहीं संतई है। संत समाज में रहकर भी समाज से दूर रहता है। संत का कार्य जप, ध्यान और समाज का मार्गदर्शन करना होता है। किन्तु वर्तमान में संतों ने जप, ध्यान व मार्गदर्शन को तिलांजलि देकर राजनीति को अपना धर्म बना लिया है। समाज में स्वंय को श्रेष्ठ और ज्येष्ठ साबित करने के लिए संत अब राजनीति का सहारा लेने लगे हैं। राजनीति में भी संतों की कई विशेषताएं हैं। कोई सपाई संत है ंतो कोई भाजपाई। कोई कांग्रेस का तो कोई संतों की राजनीति का मर्मज्ञ। धर्म की दुहाई देने वाला संत समाज अब धर्म की आड़ लेकर अपनी राजनीति चमकाने में लगा हुआ है। यहां तक की चुनावी दौरे में टिकट बंटवारे में भी यह अपना वर्चस्व साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। इन पर कोई बात आने पर धर्म खतरे में पड़ जाता है।
बात तीर्थनगरी हरिद्वार की करें तो अंदर से सपाई और और राजनैतिक दवाब के चलते वर्तमान में भाजपाई हुए संत की बड़ी चर्चा है। यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार होते हुए इन्होंने अपनी अच्छी राजनैतिक रोटियां सेकीं। सपा के सत्ता से जाते ही ये मन से तो सपा के ही रहे किन्तु लाभ पाने के लिए इन्होंने भाजपा के करीब होने का नाटक किया। जिसके चलते कई बार इन्हें राजनेताओं की खरी-खोटी भी सुननी पड़ी। हाल ही में इन्हें एक बड़े नेता की डांट भी सुननी पड़ी। वहीं पूर्व गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद के मामले में भी इनकी खासी फजीहत हुई। स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ बयानबाजी कर अगले ही दिन राजनैतिक दवाब के चलते इन्हें अपने बयान को ही बदलना पड़ा। भले ही ये भगवा धारण किए हों, किन्तु इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा किसी भी नेता से कम नहीं है। एक संत ऐसे भी हैं। जो यूपी में सपा की सरकार होते हुए लोगों का काम करवाने के लिए दलाली तक किया करते थे। सपा की सरकार जाते ही इनकी दुकान बंद हो गयी। कुछ ऐसे हैं, जिन्होंने कांग्रेस का लबाद ओढ़ा हुआ है और काम भाजपा के लिए करते हैं। एक संत ऐसे हैं, जो पैसे लेकर एक दल विशेष के लिए चुनाव में वोट बैंक इकट्ठा करने के लिए काम करते हैं। ऐसे संतों का राजनीति करने के साथ आर्थिक लाभ पाना भी मकसद होता है।
वैसे शास्त्रों में दिगम्बर संन्यासी के लिए धन का स्पर्श भी निषेध बताया गया है, किन्तु धन के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। धन लाभ कमाने के लिए कई संत रियल स्टेट के कारोबार में पूरी तरह से उतरे हुए हैं। कई सतों की ट्रेवल एजेंसियां हैं।
संतों को सनातन परम्पराओं के मुताबिक धर्म ध्वज वाहक भी कहा जाता है। किन्तु वर्तमान में इन्होंने राजनीति और धन हो ही अपना धर्म बनाया हुआ है। यहां तक की राजनीति में अपना स्थान न बना पाने वाले संत संतों व अखाड़ों की राजनीति में सक्रिय हैं। एक समय था जब राजनेता व लोग संतो ंके दर पर आकर उन्हें दण्डवत किया करते थे, किन्तु आज के संत राजनेताओं के दर पर जाकर उनकी वंदना करने में पीछे नहीं हैं। धर्म रक्षा के लिए कभी शास्त्र के साथ शस्त्र उठाने वाले संत राजनीति को अपना धर्म बना चुके हैं। ऐसे में सनातन धर्म की रक्षा कैसे की जा सकती है। लग्जरी गाड़ियों में घूमने और आलीशान भवनों में रहने वाले संत अब कुंभ मेला नजदीक आते ही सरकार से धन और अन्य सुविधाओं की मांग करने लगे हैं। आखिर सतों को पैसे की क्या दरकार। प्रयागराज जैसे स्थानों पर व्यवस्थाओं के लिए धन आवश्यकता के संबंध में सोचा जा सकता है, किन्तु हरिद्वार में तो पक्के निर्माण है और कुंभ का संचालन यहां अखाड़ों से ही होता है। अखाड़ों के व अन्य संतों के पास अकूत सम्पदा होने के बाद भी धन की मांग करने से अनुमान लगाया जा सकता है कि पैसे इन्हें केवल अपने ऐशोआराम के लिए चाहिए। जो वास्तव में संत हैं उन्हें ये राजनैतिक संत अपने पास तक बैठाना उचित नहीं समझते। मजेदार बात यह कि इन्हें अच्छे-बुरे से काई सरोकार नहीं। जिस दल की सरकार सत्ता में होती है यह उसी के गुणगान शुरू कर देते हैं। जैसा की सपाई संत होते हुए भी दवाब में अब भाजपा के गुणगान करना शुरू कर दिया गया है। इसका सीधा सा कारण है कि कुंभ में अपना राजनीति चमकाने और उसकी आड़ में धन संग्रह से अधिक कुछ नहीं है।

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