हरिद्वार। धरती पर जीवमात्र अपने कर्मों के आधार पर सुख-दुख का उपभोग करता है। सुख सद्कर्मांे का प्रतीक है। वहीं दुख बुरे कर्मांे का। सुख का उपभोग करने पर आनन्द एवं शान्ति की अनुभूति होती है। वहंी दुख के उपभोग में कष्ट एवं पीडा का अनुभव होता है।
वर्तमान परिवेश में श्री मद्भगवत गीता की सार्थकता विषय पर सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा, महेन्द्रगढ द्वारा कोविड के प्रभाव में नेशनल योग वेबिनार का आयोजन किया गया। जिसमंे श्रीमद्भगवत गीता में कर्म फल की सार्थकता पर विचार रखते हुए गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय के शारीरिक शिक्षा एवं खेल विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शिव कुमार चौहान ने बताया कि सुख-दुख जीवन की दो ऐसी राह हैं जिसमंे एक पर चलने से दूसरे का वियोग संभव है। अर्थात सुख-दुख एक साथ जीवन मंे समाहित नहीं हो सकते। श्रीमद्भगवत गीता के अनुसार व्यक्ति जब जन्म लेता है तब उसके समक्ष प्रारब्ध तथा कर्म दो ही विकल्प प्रमुख होते हैं। प्रारब्ध के आधार पर उसे स्थूल शरीर तथा बुद्वि-विवेक प्राप्त होता है। जबकि कर्म करने के लिए व्यक्ति को संस्कार तथा वातावरण की आवश्यकता होती है। जो उसे माता-पिता तथा उस परिवार से मिलते हैं। व्यक्ति मे रोपित संस्कार तथा वातावरण ही उसके कर्मो की गति का निर्धारण करते है। उन्होंने कहाकि यह स्थिति ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक शीत प्रदेश मंे उगने वाले पेड़ को उष्ण प्रदेश मंे रोपित कर दिया जाये तो वह भलीभॉति देखरेख करने पर भी उगना संभव नहीं है। इसी प्रकार प्रारब्ध में सब सद्गुण मिलने पर भी संस्कार तथा वातावरण के अभाव मंे व्यक्ति मंे सद्गुण अधिक समय तक स्थायी नहीं बने रह सकते। उनके ऊपर विपरीत गुणों का प्रभाव बढने लगेगा। और सद्गुणो का दमन हो जायेगा।
शिव कुमार ने कहाकि इसलिए धरती पर व्यक्ति को जीवन रहस्यों को समझने तथा कठिन राह को सुगमता से पार करने का वास्तविक मार्ग श्रीमद्भगवत गीता प्रदान करती है। व्यक्ति को श्रीमद्भगवत गीता द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवन पथ को सुगमता से पार करने की कला को अपनाना चाहिए। क्यांेकि श्रीमद्भगवत गीता ही भौतिक युग मे मानव जीवन का दर्पण है।
इस अवसर पर आयोजन समिति के चौयरमेन प्रो. सतीश कुमार, संयोजक प्रो. रविन्द्रपाल अहलावत तथा आयोजन सचिव डॉ. अजय पाल उपस्थित रहे।