कुंभ को लेकर हो-हल्ला.. निज स्वार्थ और धन की लालसा

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हरिद्वार। 2021 में कुंभ मेला होना है। जिसकी तैयारियां प्रशासन और अखाड़ों द्वारा आरम्भ कर दी गई हैं। कुंभ का वास्तविक अर्थ मंथन है। पूर्व में कुंभ आदि पर्वों पर देश के साधु-संत और आमजन एकत्रित हुआ करते थे। वहां देश और समाज में व्याप्त कुरीतियों और समस्याओं पर मंथन किया जाता था और उनके निराकरण का मार्ग खोजा जाता था। मगर आज कुंभ आदि पर्व चकाचैंध, धनबल का दिखावा, भंडारा, दक्षिणा और कुंभ के नाम पर भक्तों से लूट मात्र रह गयी है। जिस संत समाज और अखाड़ों का कार्य समाज के व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के लिए समाज का मार्गदर्शन करना होता था। आज वही संत समाज और अखाड़े केवल नगद नारायण का जाप करते दिखायी दे रहे हैं। भगवान की बात तो दूर सुबह होते ही कहां भण्डारा है और कहां मोटी दक्षिणा मिलनी है, उसी पर विचार किया जाता है। शेष समय अखाड़े की सम्पत्ति को कैसे ठिकाने लगाकर दो के ग्यारह किए जाएं इस पर मंथन चलता रहता है।
संतों का कार्य भगवद् भजन और लोक कल्याण का कार्य था। वहीं अखाड़े सनातन धर्म की रक्षा और उसकी पताका को ऊंचा उठाने की दिशा में कार्य करते थे। आज अखाड़ों की सम्पत्तियों को आलीशान अपार्टमेंट में बदलने का कार्य किया जा रहा है। कुछ अखाड़े ऐसे हैं जिन्होंने अपार्टमेंट के साथ अखाड़े की भूमि पर होटल बना लिए हैं और उन्हें ठेके पर देकर लाखों के व्यारे-न्यारे किए जा रहे हैं। सरकार को टैक्स न देना पड़े इस कारण होटल को भी धर्मशाला में दर्शा दिया जाता है। भक्तों को कैसे बोतल में उतारा जाए और उनसे अधिक से अधिक नगदी लूटी जाए यह कार्य भी प्रमुख हो गया है। भजन के नाम पर लग्जरी गाडियों में घुमना भी इनका शौक बना हुआ है। वैसे सनातन धर्म में संन्यासी के लिए स्वर्ण धारण करना निषेध बताया गया है। किन्तु आज जिस संत के गले में जितने भारी सोने के आभूषण वह उतना बड़ा संत। गेरूआ तो अब प्रायः लुप्त ही हो गया है। उसके स्थान पर मंहगे कपड़े शामिल हो गए है। संन्यासी के लिए सिले वस्त्र निषेध है किन्तु कितने संन्यासी हैं जो बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं। माथे पर चंदन और भस्म भी लुप्त होती जा रही है। एक स्थान पर एक या दो दिन से अधिक ठहरना भी संन्यासी के लिए निषेध बताया गया है। किन्तु आज आलीशान कोठी में रहना और मंहगे बिस्तर पर सोने के यह आदी हो चुके हैं। कभी संत धन से दूर रहते थे, किन्तु आज धन के पीछे हर समय ये दौड़ते रहते हैं। कुंभ आदि पर्वों पर सरकार और प्रशासन पर दवाब बनाकर उनसे सुख-सुविधांए अपने लिए मुहैय्या कराना ही कुंभ का मुख्य उद्देश्य रह गया है। सरकार से पांच करोड़ की मांग की जा रही है। आखिर पांच करोड़ की संतों और अखाड़ों को क्या आवश्यकता। ये तो वैसे ही अकूत सम्पदा के स्वामी है। प्रतिवर्ष मंदिरों को ठेके पर देकर, अखाड़ों की सम्पत्ति बेचकर और किराए पर देकर ये करोड़ों कमाते हैं। वैसे भी कुंभ मंथन और आत्म चिंतन का पर्व है। गंगा में डूबकी लगाने का पर्व है। फिर पांच करोड़ की क्या आवश्यकता। कुछ समय से कुंभ कार्यों में देरी को लेकर हो-हल्ला मचाया जा रहा है। हो-हल्ला कार्यों को लेकर नहीं धन की लालसा को लेकर किया जा रहा है। जिस दिन रकम जेब में उसी दिन कुंभ के सभी कार्य ठीक। नहीं तो दे रहे हैं कुंभ के वहिष्कार की धमकी। देखें तो कुंभ केवल संतों या अखाड़ों का नहीं है। यह सभी सनातनधर्मावलम्बियों का है। यदि वहिष्कार करें तो करें। जिसने आना है वह आएगा और जिसने पुण्य की डूबकी लगानी है लगाएगा। फिर वहिष्कार का क्या औचित्य। सरकार को चाहिए की वह आम जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखकर कार्य करे न की भोगियों की धमकी के समक्ष झुककर।

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